वांछित मन्त्र चुनें

षो॒ड॒शी स्तोम॒ऽओजो॒ द्रवि॑णं चतुश्चत्वारि॒ꣳश स्तोमो॒ वर्चो॒ द्रवि॑णम्। अ॒ग्नेः पुरी॑षम॒स्यप्सो॒ नाम॒ तां॑ त्वा॒ विश्वे॑ऽअ॒भिगृ॑णन्तु दे॒वाः। स्तोम॑पृष्ठा घृ॒तव॑ती॒ह सी॑द प्र॒जाव॑द॒स्मे द्रवि॒णा यज॑स्व ॥३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

षो॒ड॒शी। स्तोमः॑। ओजः॑। द्रवि॑णम्। च॒तु॒श्च॒त्वा॒रि॒ꣳश इति॑ चतुःऽच॒त्वा॒रि॒ꣳशः। स्तोमः॑। वर्चः॑। द्रवि॑णम्। अ॒ग्नेः। पुरी॑षम्। अ॒सि॒। अप्सः॑। नाम॑। ताम्। त्वा॒। विश्वे॑। अ॒भि। गृ॒ण॒न्तु॒। दे॒वाः। स्तोम॑पृ॒ष्ठेति॒ स्तोम॑ऽपृष्ठा। घृ॒तव॒ती॒ति॑ घृ॒तऽव॑ती। इ॒ह। सी॒द॒। प्र॒जाव॒दिति॑ प्र॒जाऽव॑त्। अ॒स्मे इत्य॒स्मे। द्रवि॒णा। य॒ज॒स्व॒ ॥३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब स्त्री-पुरुष का धर्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (षोडशी) प्रशंसित सोलह कलाओं से युक्त (स्तोमः) स्तुति के योग्य (ओजः) पराक्रम (द्रविणम्) धन को जो (चतुश्चत्वारिंशः) चवालीस संख्या को पूर्ण करनेवाला ब्रह्मचर्य का आचरण (स्तोमः) स्तुति का साधन (नाम) प्रसिद्ध (वर्चः) पढ़ना और (द्रविणम्) बल को देती है, जो (अग्नेः) अग्नि की (पुरीषम्) पूर्त्ति को प्राप्त (अप्सः) दूसरे के पदार्थों के भोग की इच्छा से रहित (असि) हो, उस (त्वा) पुरुष तथा (ताम्) स्त्री की (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (अभिगृणन्तु) प्रशंसा करें सो तू (स्तोमपृष्ठा) इष्ट स्तुतियों को जाननेवाली (घृतवती) प्रशंसित घी आदि पदार्थों से युक्त (इह) इस गृहाश्रम में (सीद) स्थित हो और (अस्मे) हमारे लिये (प्रजावत्) बहुत सन्तानों के हेतु (द्रविणा) धन को (यजस्व) दिया कर ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि सोलह कला रूप जगत् में विद्यारूप बल को फैला और गृहाश्रम कर के विद्यादानादि कर्मों को निरन्तर किया करें ॥३ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ पतिपत्नीधर्म्ममाह ॥

अन्वय:

(षोडशी) प्रशस्ताः षोडश कलाः सन्ति यस्मिन् सः (स्तोमः) स्तोतुमर्हः (ओजः) पराक्रमः (द्रविणम्) धनम् (चतुश्चत्वारिंशः) एतत्संख्यापूरको ब्रह्मचर्यव्यवहारकरः (स्तोमः) स्तुवन्ति येन सः (वर्चः) अध्ययनम् (द्रविणम्) बलं वा (अग्नेः) पावकस्य (पुरीषम्) पूर्त्तिकरम् (असि) (अप्सः) न विद्यते परपदार्थस्याप्सो भक्षणं यस्य सः (नाम) प्रसिद्धम् (ताम्) (त्वा) त्वाम् (विश्वे) (अभि) (गृणन्तु) प्रशंसन्तु (देवाः) विद्वांसः (स्तोमपृष्ठा) स्तोमाः पृष्ठा ज्ञापयितुमिष्टा यस्याः सा (घृतवती) प्रशस्ताज्यादियुक्ता (इह) गृहाश्रमे (सीद) (प्रजावत्) बह्व्यः प्रजा यस्मात् तत् (अस्मे) अस्मभ्यम् (द्रविणा) द्रविणं धनम्। अत्र सुपां सुलुगित्याकारदेशः (यजस्व) देहि ॥३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यः षोडशी स्तोम ओजो द्रविणं यश्चतुश्चत्वारिंशः स्तोमो नाम वर्चो द्रविणं च ददाति, योऽग्नेः पुरीषं प्राप्तोऽप्सोऽसि, तं त्वा त्वां च विश्वे देवा अभिगृणन्तु। सा त्वं स्तोमपृष्ठा घृतवती सतीह गृहाश्रमे सीद, अस्मे प्रजावद् द्रविणा यजस्व ॥३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः षोडशकलात्मके जगति विद्याबलं विस्तार्य्य गृहाश्रमं कृत्वा विद्यादानादीनि कर्माणि सततं कार्य्याणि ॥३ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सोळा कलांनी युक्त असलेल्या या जगात विद्यारूपी बलाचा विस्तार करून माणसांनी गृहस्थाश्रमाचा स्वीकार करावा व विद्यादान इत्यादी कर्म सतत करावे.